मधुमक्खी पालन क्या है What is Beekeeping :

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मधुमक्खी पालन क्या है What is Beekeeping :

मधुमक्खियों को विधिवत ढंग से लकडी के बने मधुमक्खिगृहों में पालकर उनसे शहद प्राप्त करना ही मधुमक्खी पालन कहलाता है।

वैसे तो मधुमक्खी उद्दोग अनादिकाल से चला आ रहा है परंतु पहले आज से भिन्न था। सर्वप्रथम सन 1815 में कृत्रिम छत्तों का अविष्कार लानाड्राप नामक अमेरिकन वैज्ञानिक ने किया था। भारत में सबसे पहले मधुमक्खी ट्रावनकोर में 1917 में तथा कर्नाटक में 1925 में आरम्भ हुआ था इसका विस्तार प्रांतीय स्तरों पर कुटीर उद्दोगों के रोप में कृषि पर रायल कमीशन की सिफारिशों के बाद सन 1930 के पश्चात ही हो पाया। इसके बाद 1955 में अखिल भारतीय खादी और ग्रामोद्योग कमीशन की स्थापना हुई और इसने 1962 में मधुमक्खी पालन उद्दोग को अपने हाथ में ले लिया इसके फलस्वरुप पूना में केन्द्रीय मधुमक्खी पालन अनुसन्धान केन्द्र की स्थापना की गयी। इस अनुसन्धान केन्द्र ने केन्द्र सरकार की सहायता से विभिन्न राज्यों में प्रचार व प्रसार तथा प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित किये। वास्तव में आधुनिक मधुमक्खी पालन का जन्म नैनीताल जनपद के ज्यूलीकोट नामक स्थान पर हुआ।

मधुमक्खी पालन की परिभाषा Definition of beekeeping :

मधुमक्खीयों की आदत को जानकर उनकी आवश्यकताओं को समयानुसार समझकर पूरी करना तथा उन्हें कम से कम कष्ट पहुंचाकर अधिक से अधिक लाभ प्राप्त करने के धन्धे को मधुमक्खी पालन कहते हैं।

Early information about beekeeping

मधुमक्खी पालन से प्राप्त होने वाले लाभ :

शुद्ध शहद :  à¤¶à¤¹à¤¦ एक प्राकृतिक अमूल्य है जो गोन्द की तरह गढा होता है यह श्वेत (रंगहीन) या हल्का बादामी हो सकता है शहद में मुख्य ग्लूकोज, फ्रक्टोज, जल तथा शेष खनिज लवण व एंजाईम होते हैं। शहद को कर्मठ मौन फूलों के मीठे रस को चूसकर मुंह में लाती है और लार व अन्य एंजाईमों से मिलाकर रस को मधुकक्ष में एकत्र करती है यहां इस रस में कुछ रासायनिक परिवर्तन होते हैं तथा पानी की मात्रा कुछ कम कर दी जाती है जब मधुमक्खी छत्ते में पहुंचती है तो इस अपरिपक्व मधु को छत्ते में उडेल देती है इसके बाद अन्य श्रमिक मधुमक्खी पंखों से हवा करके मधुरस को गाढा कर देते हैं और फिर मोम से बन्द कर देते हैं।

शहद के उपयोग : नियमित शहद का सेवन आयु को बढाता है, शरीर को स्वस्थ व निरोग बनाता है स्मरण शक्ति बढाता है तथा गुर्दों की शक्ति बढाता है। नींबू के पानी में शहद मिलाकर नियमित रुप से पीने से मोटापा कम हो जाता है । शहद कब्ज, खांसी व आंखों में लगाने से आंखों को आराम पहुंचाता है।

मोम : यह पदार्थ श्रमिकों के उदर के निम्न तल में स्थित ग्रंथियों द्वारा उत्पन्न होता है। एक किलोग्राम मोम बनाने के लिए मोनाओं को 20 किलो शहद खाकर पचाना होता है तब एक किलोग्राम मोम तैयार होता है। अनेकों उद्दोगों में मोम की आवश्यकता पडती है जैसे कोल्डक्रीम, पॉलिश, मोम्बत्ती, कार्बन, वैसलीन, वार्निश, बिजली उद्दोग में, छापेखाने की स्याही, गोला व बारुद आदि में। रायल जैली : मधुमक्खी की ग्रंथि का स्त्राव रायल जैसी होती है। इसे शाही भोजन के नाम से जाना जाता है। यह बहुत ताकतवर व आयु को बढाने वाला होता है इसके पोषण से प्रजनन शक्ति भी बढती है। यह दही की तरह सफेद, पतला खट्टे स्वाद वाला होता है। विदेशी बाजार में इसकी कीमत बहुत ज्यादा है परंतु भारतवर्ष में इसे एकत्रित करने के बाद कोई बाजार अभी तक विकसित नहीं हो पाया है परंतु निकट भविष्य में रायल जैली को एक्त्रित कर निर्यात करने की काफी संभावनायें हैं। मौनी विष : जैसा की नाम से ही स्पष्ट है कि मोनी विष मधुमक्खी के डंक में पाया जाता है इससे मधुमक्खियां अपनी रक्षा भी करती है परंतु यह मधुमक्खी पालन में बहुत काम की चीज है। मौनी विष को एकत्रित कर गठियाबाय जैसी असहाय बीमारियों में इसका प्रयोग किया जाता है। पोलन (पराग) : यह भी मधुमक्खी पालन से प्राप्त होने वाला एक उत्पाद है परंतु इसे मधुमक्खी पैदा न करके केवल फूलों से एकत्रित करती है। पराग फूलों के नरभाग से एकत्र किये जाते हैं श्रमिक मधुमक्खी की पिछली टांगों में एक पराग टोकरी होती है। जिसमें मधुमक्खी पराग को एकत्र करके मौनगृह तक लाती है। एक बार पराग को एकत्र करने में मधुमक्खी को 15 से 20 मिनट का समय लगता है तथा 300 से 400 फूलों पर जाना पडता हैं। मधुमक्खी इसे शहद में मिलाकर अपने बच्चे (पैद होने से पूर्व) को सैल के अन्दर ही खिलाती है, जिसे पराग रोटी कहते है। अत: इसका प्रयोग प्रोटीन की गोलियां व कैपसूल बनाने में भी किया जाता है। इसे पोलन ट्रैप के द्वारा एकत्र किया जाता है तथा पोलन ड्रायर द्वारा सुखाकर इसको बेचा सा सकता है।

फसलों की पैदावार में बढोत्तरी : जिन फसलों तथा फलदार वृक्षों पर परागण कीटों द्वारा होता है मधुमक्खियों की उपस्थिति से उनकी पैदावार में आश्चर्यजनक वृद्धि होती है । सामान्यत: परागण वाली फसलों में 20 से 80 प्रतिशत तक पैदावार बढ जाती है, परंतु सूरजमुखी तथा कद्दू वर्ग की फसलों 60 प्रतिशत तक बढोत्तरी हो जाती है तथा फल को साईज बडा हो जाता है।

वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि मधुमक्खियां यदि एक रुपये का लाभ मधुमक्खी पालक को पहुंचाती है तो वह 16-20 रुपये का लाभ उन किसनों, बगवानों को पहुंचाती है जिनके खेतों में या बागों में यह पराग व मधु संग्रह हेतु जाती है।

मधुमक्खी पालन के लिये जगह का चुनाव Selection of the place for beekeeping:

मधुमक्खी पालने की जगह (मधुवाटिका) समतल तथा वहां पर पर्याप्त मात्रा में ताजा पानी, हवा, छाया तथा धूप होनी चाहिए। इसके पास अनावश्यक पेड-पौधे, पानी का जमाव, भारी वाहनों के आने-जाने के लिए सडकें या घनी आबादी नहीं होनी चाहिये। मधुमक्खियां सभी फूलों पर नहीं जाती हैं ये केवल उन्हीं फूलों पर जाती है जहां पर इनको पर्याप्त मात्रा में मकरन्द तथा पराग मिल सके। इसलिये मधुमक्खी पालने की जगह के चारों ओर एक से दो किलोमीटर तक के क्षेत्र में फलदार वृक्ष, फूलदार फसलें, सब्जियां तथा जंगली वृक्ष आदि होने चाहिए।

मधुमक्खी पालन शुरु करने का उपयुक्त समय Appropriate time to start beekeeping:

मधुमक्खी पालन का व्यवसाय अक्टूबर-नवम्बर में आरम्भ करना चाहिए। क्योंकि शीत ऋतु के प्रारम्भ में वृक्षों तथा खेती की फसलों में फूलों की भरमार होती है तथा अधिक मधुस्त्राव होने से मधुमक्खियों में कार्य करने का जोश बढ जाता है । इस समय मधुमक्खियों के लिये तापमान सबसे उपयुक्त होता है । और इसी मौसम में ही रानी मक्खी सबसे अधिक संख्या में अंडे देती है जिससे नया मौनपालक काफी अनुभव प्राप्त कर सकता है।

मधुमक्खी खरीदने में सावधानी Caution in buying bee:

मधुमक्खी पालन आरम्भ करने के लिए सामान्य व्यक्ति को कम से कम सात-आठ फ्रेमों की तैयार कालोनी खरीदनी चाहिए। इस समय यह ध्यान रखना चाहिये कि रानी मक्खी युवा अवस्थ में हो तथा फ्रेमों पर लगेगी हुए छत्तों के कोषों में पर्याप्त मात्रा में अंडे, लारवा, शहद तथा पराग हो जहां तक सम्भव हो नर कोष के छत्ते कम तथा नर मधुमक्खियों की संख्य्या क्म होनी चाहिए।

मधुमक्खी के प्रकार Types of bees :

भारतवर्ष में मधुमक्खी की 5 प्रजातियां पायी जाती है: -

1. सारंग मधुमक्खी, 2. भुनगा, 3. भारतीय मधुमक्खी, 4. इटैलियेन मधुमक्खी, 5. इम्बर (मैलीपोना ट्राईगोना)

पह्ली चार प्रकार की मधुमक्खियों का वर्णन नीचे दिया जा रहा है व 5वें प्रकार की मधुमक्खी का कोई अधिक महत्व नहीं है इसके घर में से 20-30 ग्राम शहद ही मिल पाता है।

सारंग (एपिस डोरसीटी) : यह डिंगारा या भुराल, पहाडी मक्खी आदि स्थानीय नामों से भी पुकारी जाती है यह मैदानी क्षेत्रों में 1200 मी. की ऊंचाई तक पायी जाती है यह बडे-बडे वृक्षों, पानी की टंकियों तथा पुरानी इमारतों के खण्डहरों में ऊंचाई पर लगती है यह स्वभाव से तेज होती है तथा भयानक स्वभाव वाली व इसका डंक तेज होता है ऊंचाई पर लगने के कारण इसका पालना सम्भव नहीं हो पाया है। इससे वर्ष भारत में लगभग 30-40 किलो शहद मिल जाता है। भुनगा (एपिस फलॉरिया) : जो स्थानीय भाषा में छोटी या लड्डू मक्खी के नाम से जानी जाती है यह खुले में झाडियों आदि में छत्ता बनाकर रहती है आकार में छोटी होने के कारण इससे कुल 500 ग्राम शहद ही मिल पाता है इसका शहद आंखों के लिए अच्छा होता है। भारतीय मौन (एपिस सिराना इंडिका) : यह मधुमक्खी भारतवर्ष में लगभग सभी स्थानों पर पायी जाती है यह जाति पाली जा सकती है यह बिल्कुल बन्द स्थानों पर घर बनाना पसन्द करती है जिसमें केवल एक छोटा छेद हो। इसे प्रकाश पसन्द नहीं होता। यह अपने छत्ते समानांतर बनाती है। यह प्राकृतिक अवस्था में पेडों की खोखरों, दरारों तथा घडों या सन्दूकों में मिल जाती है परंतु आधुनिक तरीके से इन्हें मौनगृहों में पाला जाता है। इटैलियन मधुमक्खी (एपिस मैलीफेरा) : यह मधुमक्खी आदतों में भारतीय मौन से बहुत मिलती जुलती है इसका पैतृक स्थान यूरोप है इसका आकार भारतीय मधुमक्खी से कुछ बडा होता है तथा रेंज भूरा होता है इसकी अधिक परिश्रम करने की आदत के कारण ही मौनपालकों ने इसे अपनाया है यह मधुमक्खी अपना भोजन लेने के लिए 2.5 किलोमीटर तक चली जाती है इसमें घर छूट, बकछूट की आदत कम होती है तथा बीमारियां कम लगती हैं एक मधुमक्खी वंश से वर्षभर में औसतन 50 किलोग्राम या इससे भी अधिक शहद प्राप्त हो जाता है।

मौनवंश की विशेषताएं:

एक अच्छे मौनवंश में एक रानी, कुछ नर तथा कर्मठ मौन (वर्कर) सबसे ज्यादा संख्या में उपस्थित होटल है। एक अच्छे मौनवंश में निम्न विशेषताओं का होना अनिवार्य है : -

  • 1. कम संख्या में कम काटती है।
  • 2. अधिक शहद एकत्र करती है।
  • 3. रानी अधिक अंडा देती है।
  • 4. मौनवंश में पराग का संग्रह अच्छा है।
  • 5. बकछूट तथा घर छूट की प्रवृत्ति कम है।

जीवन चक्र : मधुमक्खी का जीवन चक्र तीन अवस्थाओं में पूरा होता है:-

1. अंडा अवस्था, 2. सुंडी या लारवा अवस्था, 3. प्यूपा अवस्था । रानी को अंडा देने के तीन दिन बाद अंडे से लारवा अवस्था में पहुंचने से पहले रख देती है। तीन दिन तक सभी लारवा अवस्थाओं को शाही भोजन खिलाया जाता है उसके बाद मामौन के अतिरिक्त दूसरे मौन कीटों को शहद में पराग मिलाकर दिया जाता है जिसे मोनी रोटी कहते हैं। लारवा के चारों तरफ भोजन भरकर बन्द कर दिया जाता है। 20 दिन के बाद पूर्ण मक्खी बनकर तैयार होती है और सैल से निकल आती है नर मौन 24 दिन में पूर्ण अवस्था प्राप्त करता है और रानी 15-16 दिन में तैयार हो जाती है।

अवस्था

मां मौन

कर्मठ मौन

नर मौन

अण्डावस्था

3

3

3

लारवा

5     

4-5

5-7

प्यूपा (कीटावस्था)

7-8

11-12

13-14

 

15-16

10-20

24

श्रम विभाजन :   à¤®à¥Œà¤¨à¥‹à¤‚ में श्रम विभाजन लिंग तथा आयु के अनुसार होता है मौन स्त्री पुरोषों की भांति आवश्यकतानुसार प्रत्येक काम नहीं कर सकते। प्रकृति द्वारा मौनों के कर्त्तव्यों की सीमा निर्धारित की गयी है नर मौन पुरुष जाति का होता है इसका एक मात्र कार्य कुंवारी मां मौन को गर्भित करना होता है। नर अन्य कोई कार्य नहीं करता भोजन के लिए भी यह अन्य वर्करों पर ही निर्भर करता है।

  • रानी का कार्य केवल अंडे देना होता है।
  • कर्मठ मौनों में श्रम विभाजन उम्र के अनुसार होता है।
  • 1-3 दिन तक की कर्मठ मौनों का कार्य स्वयं की तथा छत्तों की सफाई आदि करना होता है।
  • 3-6 दिन की कर्मठ मौनें बच्चों को भोजन खिलाती है।
  • 6-13 दिन तक इनके सिर में मधु अवलेह ग्रंथि विकसित हो जाती है जिससे एक दूध सा निकलता है जिसे रायल जैली (शाही भोजन) कहते हैं तीन दिन तक के सभी लारवा अवस्थाओं को रायल जैली खिलायी जाती है।
  • 13-18 दिन के बीच मौमी ग्रंथियां पेट के नीचे की खण्डों में मोम बनाती हैं।
  • 18-20 दिन के बाद मधुमक्खी छत्ते का निर्माण व द्वार रक्षा का काम करती है।
  • 20 दिन के बाद घर पहचान व उडना सीखती है ।

घरछूट व बकछूट :

घरछूट : घर छूट का अर्थ होता है अपने रहने वाले निवास स्थान को छोड देना। मौनों को अपने रहने के स्थान से बडा लगाव होता है परंतु कई बार इनके सम्मुख ऐसी समस्यायें उत्पन्न हो जाती है कि इन्हें अपने आवास को छोडना पडता है। पुराने घर को ये ज्यों का त्यों बना बनाया छोड देती है और व्यस्क मौन तथा मां मौन नये घर की तलाश में निकल पडते हैं इसे ही घर छूट कहते हैं।

घरछूट व बकछूट के कारण :

रहने के स्थान का अनुपयुक्त होना। भोजन की कमी। गर्भाथ घर छूट। दुश्मनों द्वारा परेशान किये जाने पर। असहनीय स्थिति का उत्पन्न हो जाना।

घर छूट किसी भी मौसम में हो सकता है जब अमृत स्त्राव कम होता तब अधिकांश मौनवंश घर छूट करते हैं।

बकछूट : बसंत ऋतु में कुछ मौनवंश विभाजित होकर एक समूह पुराने निवास स्थान छोडकर अन्यत्र कहीं जाकर नया घर बसाने निकल पडते है इन्हें स्वार्म या बकछूट कहते हैं। बकछूट की संख्या मौनवंश की शक्ति के अनुसार एक से अधिक भी हो सकती है। इस प्रकार मौनवंश से निकल्ने वाले मौनों के समूह को ही बकछूट कहकर पुकारते हैं बकछूट का मुख्य कारण स्थानाभाव होता है स्थान कम पड जाने पर मौनवंश बकछूट कर जाते हैं।

बकछूट में सहायक परिस्थितियां :

स्थान की कमी, 2. शिशु कक्ष में भीड हो जाना, 3. मौसम का प्रभाव, 4. मा मौन (रानी) का बुढी हो जाना।

बकछूट प्राय: बसंत ऋतु में खुले मौसम में 10 से 4 बजे के बीच होता है।

बकछूट का पकडना:

बकछूट या स्वार्म उडकर पास ही किसी पेड की टहनी आदि पर बैठ जाता है जिसे स्वार्म बैग या बकछूट थैले की सहायता से पकड लेते हैं।

विभाजन :

किसी शक्तिशाली मौनवंश से उसी प्रकार का दूसरा मां मौन युक्त मौनवंश बनाने को विभाजन कहते हैं विभाजन के समय ध्यान रहना चाहिए कि मां मौन रहित मौनवंश में ताजे अण्डे तथा बच्चों से भरे फ्रेम अवश्य हों।

माईग्रेशन : जब एक से दूसरे स्थान पर मौनवंशों को अधिक शहद तथा वंश वृद्धि के लिए ले जाया जाता है तो इसे माईग्रेशन या स्थानांतरण कहा जाता है।

वद्धोदार : मां मौन लगभग दो से लेकर ढाई वर्ष तक मौनवंश में उपयोगी होती है इसके बाद रानी नर उत्पादक हो जाती है क्योंकि दो वर्ष बाद शुक्राणु कोष समाप्त होने लगता है और दोबारा रानी गर्भ धारण नहीं करती इसलिए जब मौने यह जान लेते हैं कि उनकी रानी नर उत्पादक हो गयी है तो उसे तुरंत बदलकर नयी रानी बना देती है।

शीतकालीन बन्धन : शीत बन्धन का अर्थ होता है ठण्ड के मौसम में इस प्रकर के उपाय किये जायें कि मौनवंशों को भीषण ठण्ड से बचाया जा सके। हवा के तेज झोंके सीधे ही मौनगृह में प्रवेश न कर पायें इसके लिये मौनगृह में कोई भी छेद आदि नहीं होना चाहिये यदि हो तो गीली मिट्टी से बन्द कर दिये जायें। मौनगृह के इनर कवर के नीचे टाट का टुकडा अवश्य ढका होना चाहिये। मौनगृह के चारों ओर बोरी या पुराल बान्ध देनी चाहिये।

मौनों का भोजन : भोजन प्रत्येक प्राणी की बूलभूत आवश्यकता है इसलिये मोने भी अपने भोजन की तलाश में प्रात: होते ही निकल पडती है तथा शाम तक भोजन का संग्रह ऐसे समय के लिए करती है जब प्रकृति से उन्हें भोजन नहीं मिलता परंतु मौनपालक उनका संग्रह किया हुआ सारा भोजन निकाल लेता है। बुरे समय के लिए जमा किया गया भोजन न रहने पर यह मौनपालक की जिम्मेदारी है कि वह बरसात या सूखे समय में मौनवंश को कृत्रिम भोजन देकर जिवित रखें।

विभिन्न मौसम के अनुसार चीनी का शरबत बनाकर मौनों को पिलाया जा सकता है इसके लिये मौनगृह के अन्दर ही भोजन पात्र द्वारा भोजन दिया जाता है ।

मधुमक्खी पालन में उपयोग होने वाले उपकरण ए

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